शिवत्व की पुर्नस्थापना
‘‘न सन्न चासच्छिव एव केवल‘‘
उपर्युक्त वाक्य वेद का है। इसका अर्थ है कि सृष्टि के पूर्व न सत् ही था और न असत् किन्तु केवल शिव था।
‘‘लयना लिंग मुच्यते‘‘
(लिंग पुराण)
अर्थात् चराचर ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति एवं विलीनीकरण लिंग में ही होता है।
लिंग की अर्चना अनादिकाल से जगद्व्यापक है। स्वीष्टीय धर्म के प्रचार के पूर्व पाश्चात्य देशों की प्रायः सभी जातियों में किसी-न-किसी रूप में लिंग पूजा सर्वत्र प्रचलित रही है। रोम और यूनान दोनों देशों में क्रमशः प्रियेपस और फल्लुस के नाम से लिंग की ही अर्चना होती थी। इन दोनों राष्ट्र के प्राचीन धर्म का लिंग पूजा प्रधान अंग था। वृष की मूर्ति लिंग के साथ ही पूज्य थी विधि में धूप, दीप, पुष्पादि हिन्दुओं की ही तरह काम में आते थे। मिश्र देश में तो हर और ईशः की उपासना उनके धर्म का प्रधान अंग थी। इन तीनों देशों में प्रायः फाल्गुन मास में ही वसन्तोत्सव के रूप में लिंग पूजा वार्षिक समारोह से हुआ करती थी। मिश्र में ओसिरि-नाम के देवता एथिओपिया के चन्द्रशैल से निकली हुई नीलनदी के अधिष्ठाता माने जाते हैं। यहाँ कैलास के चन्द्रगिरि से निकली गंगा और पश्चिमगामी सिन्धु नदी जिसका दूसरा नाम नील भी हैं, दोनों के स्वामी भगवान् शंकर हैं। ‘फल्लुस’ शब्द की व्युत्पत्ति कर्नल टाड के मत से अद्भुत है। वह कहते हैं कि यह शब्द संस्कृत के ‘फलेश’ से निकला है, क्योंकि भगवान् शंकर पूजन का तुरन्त ही फल देते हैं और उन्हें वसन्तारम्भ के ऋतुफल निवेदन भी किये जाते हैं। प्लुतार्क के लेखों से पता चलता है कि उस समय मिश्र में प्रचलित लिंग पूजा सारे पश्चिम में प्रचलित थी।
प्राचीन चीन और जापान के साहित्य में भी लिंग पूजा की गवाही मिलती है और पुरानी मूर्तियों से यह भी अनुमान होता है कि अमेरिका के महाद्वीपों के प्राचीन निवासी भी लिंग पूजा किया करते थे।
ईसाइयों के वेद के दो विभाग हैं। पुराने सुसमाचार नामक विभाग में राजाओं की पुस्तक के पन्द्रहवे अध्याय में यह कथा हैं कि रैहोमोयम के पुत्र आशा ने अपनी माता मामाका को लिंग के सामने बलि देने से रोका था। पीछे उन्होंने क्रोध में आकर उस लिंग मूर्ति को तोड़-फोड़ डाला। यहूदियों के देवता बेलफेगों की पूजा लिंग मूर्ति की होती थी। उनका एक गुप्त मन्त्र था जिसकी दीक्षा यहूदी लिया करते थे। मोयावी और मरिनावासी यहूदियों के उपास्य लिंग की स्थापना फेगोशैल पर हुई थी। इनकी उपासना विधि मिश्र वासियों से मिलती जुलती थी। पहाड़ के ऊपर जंगल में और बड़े वृक्ष के नीचे यहूदियों ने लिंग और बछड़े की मूर्ति स्थापित की, इस पर यहूदियों के परम पिता उनसे रूष्ट हो गये थे। वह बालेश्वर-शिवलिंग पत्थर का बनाते और स्थापित करते थे और ‘बाल’ नाम में ही पूजते भी थे। बालेश्वर की वेदी के सामने वह धूप जलाते थे और लिंग के सामनेवाले वृष ( नन्दी ) को हर अमावस्या को पूजा चढ़ाते थे। मिश्र के ओसिरिस के लिंग के सामने भी बैल रहता था।
कर्नल टाड का कहना है कि मुहम्मद साहब के पहले ‘लात’ नामक अरब के देवता की उपासना ‘ लिंग ’ के रूप में हुआ करती थी और सोमनाथ के शिवलिंग को भी पश्चिमी लोग ‘लात’ ही कहते थे। ‘लात’ की मूर्तियाँ दोनों जगह बहुत विशाल और रत्नों से सुसज्जित थीं। यह एक ही पत्थर का लिंग था जो पचास पुरूष या पोरस ऊँचा था। जिस मन्दिर में यह स्थापित था उसमें इस लिंग को संभालने के लिये ठोस सोने के छप्पन खम्भे थे। महमूद गजनवी इसे ध्वंस करके सोना ढो ले गया। दोनों देशों में नाम एक ही था ‘लात’ या ‘लाट’ यह विचित्रता थी। आकार और लम्बाई के हिसाब से ‘लाट’ कहना तो ठीक ही था परन्तु कोषकार रिचर्डसन लिखता है कि ‘लात’ अल्लाह की सबसे बड़ी पुत्री का नाम था और उसका चिन्ह व मूर्त्ति लिंग की तरह थी। जो हो, मुसलमानों ने ‘लात’ का ध्वंसावशेष भी न रक्खा, परन्तु मक्केश्वर तो अब तक लिंग रूप में कावे में पधराये हुए हैं। इस मक्केश्वर लिंग की चर्चा भविष्यपुराण के ब्रह्मपर्व में आयी है। मक्केश्वरलिंग काले पत्थर का है। इसे मुसलमान ‘असवद’ कहते है। पहले इसराएली और यहूदी इसकी पूजा करते थे। मुहम्मद साहब के समय में इसकी चार कुलों के पण्डे पूजा-अर्चना किया करते थे। जब कावे में इसके लिये एक स्थान बनाया गया और इसके प्राचीन स्थान से वहाँ ले जाकर जब पधराने का प्रश्न आया तब चारों पण्डों में यह झगड़ा उठा कि मूर्ति को उठाकर निश्चित स्थान तक पहुँचाने का गौरव किसे प्राप्त हो ? हजरत मुहम्मद साहब का फैसला सर्वमान्य हुआ और एक चादर पर चारों ने उसे थामकर रक्खा और चादर के चारों कोनों को थामकर उस स्थान पर ले जाकर मूर्ति को पधराया। काबे में इस मूर्ति की पूजा नहीं होती, परन्तु जो मुसलमान हज करने जाता है, इस मूर्ति का चरण चुम्बन करते है।
यद्यपि अब पहले की तरह पूजा नहीं होती तथापि फ्रांस के अनेक प्रसिद्ध स्थानों में अब तक लिंग देखने में आता हैं। गिरिजाघरों में, धर्म-मन्दिरों में, अजायबखानों में, फ्रांस ही नहीं और देशों में भी लिंगरूप के पत्थर स्मारकरूप से रक्खे देखे जाते हैं। लिंग पूजा का पाश्चात्य देशों में इतना प्रचार था कि ‘लिंगार्चा’ अथवा (Phallicism) एक सम्प्रदाय ही समझा जाता था जिसका अस्तित्व सभी देशों में पाया जाता था। इसी तरह का ‘लिंगायत्’ सम्प्रदाय हमारे देश में भी है। दक्षिण में इस सम्प्रदाय के शैव मिलते हैं जो ‘जंगम’ कहलाते हैं और सोने या चाँदी के सम्पुट में शिवलिंग रखकर बाँह या गले में पहनते हैं। ऐंसाक्लोपीडिया ब्रिटानिक में (Phallicism) शब्द में इस सम्प्रदाय का वर्णन अधिक विस्तार से मिलेगा।
पणिः जाति के लोगों की चर्चा हमारे वैदिक साहित्य में आयी है। यह पाश्चात्य वणिक्-समाज था, जिसका आना- जाना भारत से लेकर भूमध्य-सागर तक हुआ करता था। पश्चिम में यही लोग फणिश् कहलाते थे और इबरानी जाति इन्हीं के विकास का फल हुई जिनके यहाँ भारतीय बालेश्वर-लिंग की उपासना विधिवत् होती थी। मन्दिरों की बनावट भारतीय ढंग की थी, जैसा उनके ध्वंसावशेषों से अवगत होता है। इस बालेश्वरलिंग को बैबिल में ‘शिउन’ कहा है। इस घने सादृश्य को देखकर अनेक प्राक्यविद्या-विशारद् कहलाने वालों ने यहाँ तक अटकल का घोड़ा दौड़ाने का साहस किया है कि उनकी दृष्टि में भारत के लोगों ने लिंगोपासना पश्चिमी देशों के लिंगायत- सम्प्रदाय वालों से सीखा है।
अमेरिका-महाद्वीप में पेरूविया नामक स्थान में वहाँ के प्राचीन निवासी रहते है। उनका पुराना राजवंश सूर्यवंशी कहा जाता है और वह ‘राम-सीतोया’ नाम का एक महोत्सव भी करते हैं। वहाँ की मध्यवर्ती कुछ जातियों में ईश्वर को ‘सिब्रु’ कहते हैं। फ्रीजिया-देश में जो आसुरिया-देश या छोटी एशिया का एक भूखण्ड है वहाँ के निवासी ‘सेवा’ वा ‘सेवाजियः’ नाम के देवता की उपासना करते हैं। जिस समय मन्त्र लेते हैं कुछ ऐसा अनुष्ठान भी करते हैं जिसमें साँपों का भी काम लगता है। मिश्र में भी ‘सेवा’ देवता के साथ सर्प का संबंध है। यह व्यालमालधारी भगवान् शिव के सिवा और कोई नहीं।
इन प्रमाणों पर विचार करने से इस बात में तनिक भी सन्देह नहीं रह जाता कि लिंग पूजा बहुत प्राचीन है और संसार में साधारणतया किसी काल में अवश्य फैली हुई थी और सर्वत्र लिंगोपासना का प्रचार था।
अब अपने देश की ओर आइये। हमारे देश में तो हिमालय में मानसरोवर और कैलास से लेकर कन्याकुमारी और रामेश्वरजी तक और अटक से लेकर कटक तक लिंगां और शिवालयों की कोई गणना नहीं है। असंख्यलिंग हैं, असंख्य शिवालय हैं। यह देश शिवमय ही है। यह तो वर्तमान काल की बात हुई जब कि एक सुदीर्घकाल से हमारा देश आसुरी माया और संस्कार से आवृत है। परन्तु शिवलिंग और शिवालय भारतीय संस्कारों के रग-रग में मिला चला आया है इस बात के साक्ष भूगर्भ में गड़े-पड़े है। छोटी-छोटी खुदाइयों में, नेवों और कुओं के भीतर तो शिवलिंग अक्सर मिलते ही रहते है। काशी में अभी हाल में कपड़े के चौक बाजार के बीच में दो-तीन पोरस नीचे शिवलिंग और मन्दिर का मिलना कोई मूल्य नहीं रखता जबकि मोहन-जोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई में ऐसी तहों में शिवलिंग मिलते हैं जो समय को निकट से निकट खींच लाने वाले कट्टर आनुमानिकों की अटकल से आज से कम-से- कम छः हजार और भारतीय महायुद्ध से कम-से-कम एक हजार वर्ष पहले के ठहरते हैं। सर जान मार्शल अनेक लिंगों के प्रादुर्भाव से चकराकर कहते हैं कि शैवधर्म कलकालिथिक युग (Chalcolitbic) या इससे भी पहले का है और इस संबंध के अपने ग्रन्थ में उस समय के इन शैवों को आर्यजाति के पूर्वगामी कोई अधिक सभ्य राष्ट्र के मनुष्य ठहराते हैं क्योंकि उनके मत से भारत में तब तक आर्यलोग आकर बसे ही न थे। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि पुरातत्त्व एवं भूगर्भ के खोजी सत्य की खोज की उत्सुकता में समय को सदा संकुचित करके ही देखते रहे हैं। अतः मेरी समझ में तो मोहनजोदड़ो के सबसे नीचे के स्तर महाभारत की लड़ाई के कई हजार वर्ष पहले के होगें। इस तरह शिवलंग उपासना के साक्षी महाभारत की ऐतिहासिक घटना से कई हजार वर्ष पूर्व की पत्थर की लीक है।
अब अपने देश की ओर आइये। हमारे देश में तो हिमालय में मानसरोवर और कैलास से लेकर कन्याकुमारी और रामेश्वरजी तक और अटक से लेकर कटक तक लिंगां और शिवालयों की कोई गणना नहीं है। असंख्यलिंग हैं, असंख्य शिवालय हैं। यह देश शिवमय ही है। यह तो वर्तमान काल की बात हुई जब कि एक सुदीर्घकाल से हमारा देश आसुरी माया और संस्कार से आवृत है। परन्तु शिवलिंग और शिवालय भारतीय संस्कारों के रग-रग में मिला चला आया है इस बात के साक्ष भूगर्भ में गड़े-पड़े है। छोटी-छोटी खुदाइयों में, नेवों और कुओं के भीतर तो शिवलिंग अक्सर मिलते ही रहते है। काशी में अभी हाल में कपड़े के चौक बाजार के बीच में दो-तीन पोरस नीचे शिवलिंग और मन्दिर का मिलना कोई मूल्य नहीं रखता जबकि मोहन-जोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई में ऐसी तहों में शिवलिंग मिलते हैं जो समय को निकट से निकट खींच लाने वाले कट्टर आनुमानिकों की अटकल से आज से कम-से- कम छः हजार और भारतीय महायुद्ध से कम-से-कम एक हजार वर्ष पहले के ठहरते हैं। सर जान मार्शल अनेक लिंगों के प्रादुर्भाव से चकराकर कहते हैं कि शैवधर्म कलकालिथिक युग (Chalcolitbic) या इससे भी पहले का है और इस संबंध के अपने ग्रन्थ में उस समय के इन शैवों को आर्यजाति के पूर्वगामी कोई अधिक सभ्य राष्ट्र के मनुष्य ठहराते हैं क्योंकि उनके मत से भारत में तब तक आर्यलोग आकर बसे ही न थे। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि पुरातत्त्व एवं भूगर्भ के खोजी सत्य की खोज की उत्सुकता में समय को सदा संकुचित करके ही देखते रहे हैं। अतः मेरी समझ में तो मोहनजोदड़ो के सबसे नीचे के स्तर महाभारत की लड़ाई के कई हजार वर्ष पहले के होगें। इस तरह शिवलंग उपासना के साक्षी महाभारत की ऐतिहासिक घटना से कई हजार वर्ष पूर्व की पत्थर की लीक है।
यदि आप चाहते हैं कि सम्पूर्ण विश्व में शिवत्व की पुर्नस्थापना हो और आप इस कार्य में अपना सहयोग बिना किसी लोभ-लालच के करना चाहते हैं, तो आज से ही अपने परिचितों को समझाने का यत्न करें, कि अपनी किसी एक मनोकामना का संकल्प किसी भी शिव मंदिर अथवा घर पर चल प्रतिष्ठित शिवलिंग हो तो उसके सामने रखते हुए शिवलिंग पर जल, पुष्प-पत्र चढ़ायें एवं ऊँ नमः शिवाय का मानसिक, वाचिक अथवा लिखित जप करते रहने की प्रेरणा दें।
यदि आपके पास अतिरिक्त समय है, और आप धर्म के क्षेत्र में अथवा सामाजिक क्षेत्र में श्रम करना चाहते हैं तथा उक्त कर्म के उपलक्ष्य में पारिश्रमिक, मान, सम्मान, प्रतिष्ठा की अभिलषा नहीं रखते तो शिवा मिशन न्यास (रजि.) के शिवा परिवार में आपका स्वागत है।
-सम्पर्क-
रुद्राक्ष ॐ नमः शिवाय मंत्र बैंक (शिवा मिशन न्यास )
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ग्वालियर (म.प्र.)
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